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Saturday, January 9, 2010

दोस्ती की अदा छोड़ दे
















साहेबान
आप सभी की नज़रे-इनायत का दिल से शुक्रिया
आप सबने मेरा हौसला बढ़ाया, सभी का अहसानमंद हूं..
हज़रात, 
एक और ग़ज़ल आपकी खिदमत में हाज़िर है---

दिल में उल्फत नहीं है तो फिर दोस्ती की अदा छोड़ दे
वार करना है सीने पे कर,  दुश्मनी कर, दगा छोड़ दे

चाहे जैसे भी हालात हों, राह कितनी भी दुश्वार हो
ज़िन्दगी के उसूलों पे चल, हार कर बैठना छोड़ दे

 ये हकीक़त है तकदीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और  ये भी मुनासिब नहीं , आदमी हौसला छोड़ दे

हक को हक के तरीके से ले जो ज़बां जिसकी है उसमें बोल
नर्म इतना भी लहजा न रख , सर उठा , इल्तजा छोड़ दे

तश्नगी की क़सम है तुझे, मैकदे को तू 'शाहिद' बना
पीते पीते न छुट पायेगी , आज साग़र भरा छोड़ दे

शाहिद मिर्जा शाहिद

38 comments:

नीरज गोस्वामी said...

चाहे जैसे भी हालात हों, राह कितनी भी दुश्वार हो
ज़िन्दगी के उसूलों पे चल, हार कर बैठना छोड़ दे

बेहतरीन ग़ज़ल...
नीरज

निर्मला कपिला said...

ये हकीक़त है तकदीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और ये भी मुनासिब नहीं , आदमी हौसला छोड़ दे

दिल में उल्फत नहीं है तो फिर दोस्ती की अदा छोड़ दे
वार करना है सीने पे कर, दुश्मनी कर, दगा छोड़ दे
शाहिद जी किस किस शेर की तारीफ करूँ एक से एक बढ कर खूबसूरत है बधाई और शुभकामनायें

सतपाल ख़याल said...

तश्नगी की क़सम है तुझे, मैक़दे को तू 'शाहिद' बना
पीते पीते न छुट पायेगी , आज सागर भरा छोड़ दे
wahwa!! jiyo
bahut khoob

इस्मत ज़ैदी said...

shahid sahab,bahut khoobsoorat shayri ke bila irada hi munh se subhan allah nikal jaye
itne hausle ki shayeri bahut kam dekhne ko milti hai
jab bhi is blog par aati hoon kuchh na kuchh seekh kar hi jaati hoon
mubarak ho

गौतम राजऋषि said...

मुश्किल रदीफ़ को बड़ी सहजता से निभाती हुई एक अच्छी ग़ज़ल...

daanish said...

वार करना है, सीने पे कर ,
दुश्मनी कर, दग़ा छोड़ दे...

वाह-वा !!
एक अकेला सादा-सा मिसरा
जाने कितने ही कहे जा चुके
अक़वाल पे भारी पड़ रहा है

ग़ज़लियात की उम्दा और कदीम रवायत को
लफ्ज़-दर-लफ्ज़ निभाते हुए
बहुत ही कामयाब ग़ज़ल कही है आपने ....

और साथ ही
जिद्दत की झलक भी चमचमा रही है ...
"चाहे जैसे भी हालात हों, राह कितनी भी दुश्वार हो
ज़िन्दगी के उसूलों पे चल, हार कर बैठना छोड़ दे"

और वो.....
हक को हक के तरीक़े से रख.........
बहुत खूब.....
ऐसा जज्बा..... होना चाहिए !!
भई...
मेरी जानिब से इस अज़ीम ग़ज़ल पर
ढेरों मुबारकबाद . . .

Asha Joglekar said...

ये हकीक़त है तकदीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और ये भी मुनासिब नहीं , आदमी हौसला छोड़ दे
बहुत खूब ।

फ़िरदौस ख़ान said...

चाहे जैसे भी हालात हों, राह कितनी भी दुश्वार हो
ज़िन्दगी के उसूलों पे चल, हार कर बैठना छोड़ दे

ये हकीक़त है तकदीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और ये भी मुनासिब नहीं , आदमी हौसला छोड़ दे

Bahut Khoob...

Udan Tashtari said...

हक को हक के तरीके से ले जो ज़बां जिसकी है उसमें बोल
नर्म इतना भी लहजा न रख , सर उठा , इल्तजा छोड़ दे


.बहुत शानदार शेर निकाले हैं सभी, वाह!

अनामिका की सदायें ...... said...

दिल में उल्फत नहीं है तो फिर दोस्ती की अदा छोड़ दे
वार करना है सीने पे कर, दुश्मनी कर, दगा छोड़ दे

itna saaf dil kaha hai aaj kal logo k paas?

चाहे जैसे भी हालात हों, राह कितनी भी दुश्वार हो
ज़िन्दगी के उसूलों पे चल, हार कर बैठना छोड़ दे

itni himmat hoti logo me to aaj insaniyat ki ye haalat na hoti.

ये हकीक़त है तकदीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और ये भी मुनासिब नहीं , आदमी हौसला छोड़ दे
-namumkin to kuchh b nahi hai.

हक को हक के तरीके से ले जो ज़बां जिसकी है उसमें बोल
नर्म इतना भी लहजा न रख , सर उठा , इल्तजा छोड़ दे

yessssssssss sharaft ki bhasha sabhi nahi samajhte.

तश्नगी की क़सम है तुझे, मैक़दे को तू 'शाहिद' बना
पीते पीते न छुट पायेगी , आज सागर भरा छोड़ दे
waaaaaaaaah kya baat hai...aaj sagar jara chhod de..clap clap clap. is line ko padh maja aa gaya.bahut khoob.

हास्यफुहार said...

एक बहुत अच्छी ग़ज़ल

Unknown said...

bohot hi umdah janab...jawab nahi apka............khaas kar ye hamare dil ko chu gaya

हक को हक के तरीके से ले जो ज़बां जिसकी है उसमें बोल
नर्म इतना भी लहजा न रख , सर उठा , इल्तजा छोड़ दे

par ek baat ham yahan kehna chahenge jo akhir ki line me apne तश्नगी की क़सम है तुझे likhe hain yahan sahi haqdar qasam ka khuda hai uske siwa ham kisi ki qasam nahi khate yahdikumullahi wa yuslihbalakum

महावीर said...

जनाब शाहिद साहब
आपकी ग़ज़ल पढ़ी और दाद दिए बग़ैर न रह सका. बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल है. हर लफ़्ज़, हर शे'र दिल को छूता हुआ लगा. इस ग़ज़ल को बारबार पढ़ा और हर दफ़ा पहले से ज़्यादा लुत्फ़ आया. सारे ही अशआर इतने दिलकश हैं कि किसी एक शे'र को बहुत अच्छा कहना नाइन्साफ़ी होगी. मेरी मुबारकबाद और दाद क़ुबूल कीजिए.
लंबाई के लिहाज़ से ६ अरकान वाले मुसद्दस अशआर तो आम हैं, लेकिन १२ अरकान में मुसद्दस मज़ाइफ़ مضاعف (दुगना) की ग़ज़ल लिखना एक कमाल की बात है. इसके लिए आप को दुबारा दाद और मुबारकबाद देना ज़रूरी हो गया है. कुबूल कीजिए.

वन्दना अवस्थी दुबे said...

दिल में उल्फत नहीं है तो फिर दोस्ती की अदा छोड़ दे
वार करना है सीने पे कर, दुश्मनी कर, दगा छोड़ दे
बहुत सुन्दर गज़ल.

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

सर्वश्री नीरज जी, निर्मला जी, सतपाल 'ख्याल' जी,
इस्मत ज़ैदी जी, गौतम राजरिशी जी, आशा जोगलेकर जी,
फिरदौस साहिबा, समीर जी, अनामिका जी, सविता जी, वन्दना जी,
आप सब अदब नवाज़ की आमद ने मेरा हमेशा हौसला बढ़ाया है,
जिसके लिये शुक्रिया या आभार जैसे शब्द बहुत कम हैं
मुफलिस जी, आपका खुलूस, क्या कहूं,
बस एक गीत का मुखड़ा याद आता है
अहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तो.....
श्रद्देय महावीर जी, आपके अमूल्य शब्दों में
मेरे लिये बेशुमार आशीर्वाद है, अनुसरण सूची में आपको देखकर
खुशी से दिल का जो हाल है, बयान नहीं कर सकता
हां, अब वो जगह अनुसरण करने वालों की नहीं रह गई है,
इसीलिए शीर्षक बदलने का फैसला किया है
नासिर भाई, आपके जज्बे की दिल से क़द्र करता हूं
बस इतनी दरख्वास्त है कि रिन्द के लिये 'तश्नगी की क़सम' की खास अहमियत होती है
आप सभी की दुआओं का तलबगार
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

alka mishra said...

पीते पीते न छुट पायेगी , आज सागर भरा छोड़ दे
पीते पीते न छूट पायेगी ,आज सागर भरा छोड़ दे
मजा आ गया शाहिद भाई
हक वाला शेर ज्यादा पसंद आया
इसी तर्ज पे एक शायर का गीत है---
हाथ बढ़ाकर छीनो रोटी ,मर्यादाएं क्या होती हैं ?

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

धन्यवाद अलका जी,
आपका संकेत साफ है,
लेकिन यहां 'बहर' ऐसा करने की
'छूट' नहीं दे रही है,
माफी चाहता हूं...
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

चाहे जैसे भी हालात हों, राह कितनी भी दुश्वार हो
ज़िन्दगी के उसूलों पे चल, हार कर बैठना छोड़ दे

Ye to mere dil ki baat hai... mujhe bal milta hai.

ये हकीक़त है तकदीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और ये भी मुनासिब नहीं , आदमी हौसला छोड़ दे

हक को हक के तरीके से ले जो ज़बां जिसकी है उसमें बोल
नर्म इतना भी लहजा न रख , सर उठा , इल्तजा छोड़ दे


अब इसकी तारीफ़ क्या करूँ.. ख़ास शेरो से भरी है ग़ज़ल..

- सुलभ

chandrabhan bhardwaj said...

Bhai Shahid Mirza ji,
Aaaj ek halki fulki si ghazal blog par dalane ke liye computer khola tha.Blog par jaane se pahale mail kholkar dekha to aapka mail mila aapki tarahi mushaire par ghazal padhi bahut hi sunder sher kahe hain apne. Fir aaj aapka blog bhi khol kar dekha jiski pahali ghazal ka hi ek sher 'zindagi ke usoolon pa chal har kar baithana chhod de' achha laga. Lekin waqaya dekhiye ki main jis ghazal ko blog par post kar rahaa hoon uske matale ka doosra misara hai 'sabhi kuchh har kar baitha hua hoon'. baharhaal is sunder ghazal ke liye aapko bahut bahut badhai.
Chandrabhan Bhardwaj

Pushpendra Singh "Pushp" said...

शाहिद जी
सुन्दर गजल हर शेर उम्दा
बहुत बहुत आभार................

Rajeysha said...

खूबसूरत ख्‍याल बयानी है मजा आया।

Alpana Verma said...

'ये हकीक़त है तकदीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और ये भी मुनासिब नहीं , आदमी हौसला छोड़ दे'
-वाह! बहुत खूब! यही जज़्बा बना रहे बस!होसलों के परों पर आसमान छू सकता है इंसान!
'हक को हक के तरीके से ले जो ज़बां जिसकी है उसमें बोल
नर्म इतना भी लहजा न रख , सर उठा , इल्तजा छोड़ दे'
-क्या खूब लिखते हैं आप!
बहुत उम्दा!

Razi Shahab said...

behtareen gazal

ज्योति सिंह said...

तश्नगी की क़सम है तुझे, मैक़दे को तू 'शाहिद' बना
पीते पीते न छुट पायेगी , आज सागर भरा छोड़ दे
दिल में उल्फत नहीं है तो फिर दोस्ती की अदा छोड़ दे
वार करना है सीने पे कर, दुश्मनी कर, दगा छोड़ दे
shahid ji aapki jitni tarif ki jaaye kam hai ,laazwaab likhte hai ,waah waah ki gunj uth rahi hai har taraf

दिगम्बर नासवा said...

दिल में उल्फत नहीं है तो फिर दोस्ती की अदा छोड़ दे
वार करना है सीने पे कर, दुश्मनी कर, दगा छोड़ दे

चाहे जैसे भी हालात हों, राह कितनी भी दुश्वार हो
ज़िन्दगी के उसूलों पे चल, हार कर बैठना छोड़ दे ..

इस खूबसूरत ग़ज़ल के लाजवाब शेर हैं .......... कहीकत की ज़मीन पर टीके हुवे ......... मज़ा आ गया सर ......... शुक्रिया .......

सर्वत एम० said...

भई वाह, सुब्हानअल्लाह , तबीयत खुश कर दी. इतने उम्दा और पाए के अशआर, लगता है यह गजल कही नहीं गयी बल्कि उतरी है. एक-एक शेर पर बेसाख्ता तारीफ-ओ-तहसीन के अल्फाज़ रोके नहीं रुक रहे थे. बहुत मेहनत की है इस गजल पर और यह मेहनत साफ़ तौर पर नजर भी आ रही है. मेरी तरफ से --------शाबाश.
६ फाइलुन में कहना, हंसी-खेल नहीं, मेरे तो पसीने छूट गए देख कर. यह जोश, यह जुनून बरकरार रहे, इससे भी शानदार गजलें आप पेश करते रहें, ये मेरी ख्वाहिश है और दुआ भी.

श्रद्धा जैन said...

दिल में उल्फत नहीं है तो फिर दोस्ती की अदा छोड़ दे
वार करना है सीने पे कर, दुश्मनी कर, दगा छोड़ दे

waah kya baat kahi hai


चाहे जैसे भी हालात हों, राह कितनी भी दुश्वार हो
ज़िन्दगी के उसूलों पे चल, हार कर बैठना छोड़ दे

bahut achchha Msg

ये हकीक़त है तकदीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और ये भी मुनासिब नहीं , आदमी हौसला छोड़ दे

bahut khoob

हक को हक के तरीके से ले जो ज़बां जिसकी है उसमें बोल
नर्म इतना भी लहजा न रख , सर उठा , इल्तजा छोड़ दे

kya baat hai

तश्नगी की क़सम है तुझे, मैक़दे को तू 'शाहिद' बना
पीते पीते न छुट पायेगी , आज सागर भरा छोड़ दे

Shahid ji aapki gazal padh kar din ban gaya
ek ek sher kamaal

Urmi said...

मकर संक्रांति की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!
बहुत बढ़िया पोस्ट !

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

सुलभ सतरंगी जी, आपने शेर पसंद किये शुक्रिया
श्रद्देय भारद्वाज जी, आपका आशीर्वाद सदैव अपेक्षित है
पीसिंह जी, राजेय शा साहब हौसला अफज़ाई के लिये धन्यवाद
अल्पना जी, आपकी आमद का इस्तकबाल है
रज़ी साहब, आपकी इनायत है
भाई दिगम्बर नासवा जी, आप पारखी हैं, आपको शेर अच्छे लगे, मेहनत वसूल हो गई
मोहतरम सर्वत साहब, आपने जिस अंदाज़ में पीठ थपथपाई, काफी हौसला बढ़ गया
श्रद्दा जी, ग़ज़ल पसंद करने के लिये शुक्रिया.
अरे वाह, बबली जी भी हैं.! आपका स्वागत है
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

रचना दीक्षित said...

हर इक शेर बेहतरीन,हर बात शब्द दर शब्द सही काश. जीने का अंदाज़ ऐसा ही हो जाये

Pawan Kumar said...

बहुत खूब.....मुश्किल रदीफ़ को क्या निभाया है आपने......अच्छी ग़ज़ल......ये शेर खास पसंद आया......
ये हकीक़त है तकदीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और ये भी मुनासिब नहीं , आदमी हौसला छोड़ दे
अब आपके ब्लॉग पर आता जाता रहूँगा!

कडुवासच said...

..प्रभावशाली व प्रसंशनीय गजल!!!!!!

शारदा अरोरा said...

ग़ज़ल बहुत पसंद आई ,'आधी बाज़ी आधी माँ ' और
' कैसी बस्ती है ये कैसा है नगर परदेसी
'अपना' कहती है ज़बां, और नज़र 'परदेसी' वाली ग़ज़लें तो बेहतरीन ग़ज़लें हैं |

दिसंबर के महीने में मेरे जन्मदाता को ऊपरवाले ने अपने पास बुला लिया , तो बहुत दिन ब्लॉगजगत की खबर भी नहीं रखी , और न चाहते हुए भी सब उदास सा ही लिखा गया , इसीलिए बात नए साल की न लिख कर पुराने साल पर ही लिखी जा सकी |

shama said...

चाहे जैसे भी हालात हों, राह कितनी भी दुश्वार हो
ज़िन्दगी के उसूलों पे चल, हार कर बैठना छोड़ दे..
Naye saal ke liye behad prerak panktiyan !

ज्योति सिंह said...

shahid mirza ji aap kavyaanjali par apne vichar de jisse aage badhne me aasani rahe main pahli baar ek lekh daali hoon .

देवेन्द्र पाण्डेय said...

ये हकीक़त है तकदीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और ये भी मुनासिब नहीं , आदमी हौसला छोड़ दे
...कठिनाईयों से जूझने की प्रेरणा देता शेर. बधाई.

shama said...

तश्नगी की क़सम है तुझे, मैक़दे को तू 'शाहिद' बना
पीते पीते न छुट पायेगी , आज सागर भरा छोड़ दे
Aaj phirse padhne chali aayee hun!Phir wahee nayi si tazagee mili!

संजय भास्‍कर said...

हकीक़त है तकदीर से, जीत पाना भी मुमकिन नहीं
और ये भी मुनासिब नहीं , आदमी हौसला छोड़ दे
बहुत खूब