कहीं सब कुछ न हो जाए उजागर चुप रहा था मैं
तुम्हारे दिल की चौखट तक भी आकर चुप रहा था मैं
अब ऊंचा बोलने का तुम मुझे इल्जाम मत देना
तुम्हारे नर्म लहजे तक बराबर चुप रहा था मैं।
मेरी सीधी सी बातों के कई मतलब न वो समझें
बहुत कुछ कहने की हसरत तो थी पर चुप रहा था मैं
ये आसां भी था मुमकिन भी मुनासिब भी जरूरी भी
बदलते देख तुमको, खुद बदलकर चुप रहा था मैं
सदा दिल की वो सुन लें बस इसी उम्मीद में शाहिद
बहुत हौले से इक दर खटखटाकर चुप रहा था मैं।
शाहिद मिर्जा शाहिद
6 comments:
अब ऊंचा बोलने का तुम मुझे इल्जाम मत देना
तुम्हारे नर्म लहजे तक बराबर चुप रहा था मैं।
सदा दिल की वो सुन लें बस इसी उम्मीद में शाहिद
बहुत हौले से इक दर खटखटाकर चुप रहा था मैं।
वाह बहुत बढ़िया आदरणीय
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल है जनाब
हर शेर अपने आप में इनसानी फ़ितरत और जज़्बात का आईनादार है
अब ऊंचा बोलने का तुम मुझे इल्जाम मत देना
तुम्हारे नर्म लहजे तक बराबर चुप रहा था मैं। ...
सुभान अल्ला ... ये खूबसूरत ग़ज़ल नज़रों से छूटने लगी थी ... पर आपके ब्लॉग तक आना हो ही गया ... मज़ा आ गया शाहिद जी इस मुकम्मल ग़ज़ल का ...
ये आसां भी था मुमकिन भी मुनासिब भी जरूरी भी
बदलते देख तुमको, खुद बदलकर चुप रहा था मैं
...... ek yaadgaar sher ... waah-waa !!!
नव वर्ष की शुभकामनाएं देने, प्रभात अब आया है ।
..सुन्दर नववर्ष रचना ..
मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ आपका आने वाला और अगले हर वर्ष खुशियाँ और सुख - आनंद से परिपूर्ण हो , सपरिवार सुखी - संपन्न रहें !
बेहतरीन ब्लाग और बेहतरीन रचना प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
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