हाज़िर है एक ग़ज़ल-
सारी वफ़ाएं सारी जफ़ाएं जाने क्या-क्या भूल गया
तुम छेड़ो तो याद आ जाए मैं तो किस्सा भूल गया
साथी मुझको लेकर चलना फिर बचपन की गलियों में
शायद ऐसा कुछ मिल जाए जिसको लाना भूल गया
हां मैं ऊंचा बोला था तस्लीम किया मैंने लेकिन
मेरी बातें याद रहीं खुद अपना लहजा भूल गया
अपना हर सामान समेटा लेकिन जल्दी-जल्दी में
मेरी आंखों में वो नादां अपना चेहरा भूल गया
तुम क्या रूठे लफ़्ज़ भी अब तो मुझसे रूठ गए शाहिद
सुनने वाले ये कहते हैं अच्छा कहना भूल गया
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
सारी वफ़ाएं सारी जफ़ाएं जाने क्या-क्या भूल गया
तुम छेड़ो तो याद आ जाए मैं तो किस्सा भूल गया
साथी मुझको लेकर चलना फिर बचपन की गलियों में
शायद ऐसा कुछ मिल जाए जिसको लाना भूल गया
हां मैं ऊंचा बोला था तस्लीम किया मैंने लेकिन
मेरी बातें याद रहीं खुद अपना लहजा भूल गया
अपना हर सामान समेटा लेकिन जल्दी-जल्दी में
मेरी आंखों में वो नादां अपना चेहरा भूल गया
तुम क्या रूठे लफ़्ज़ भी अब तो मुझसे रूठ गए शाहिद
सुनने वाले ये कहते हैं अच्छा कहना भूल गया
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
7 comments:
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (23-02-2015) को "महकें सदा चाहत के फूल" (चर्चा अंक-1898) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हां मैं ऊंचा बोला था तस्लीम किया मैंने लेकिन
मेरी बातें याद रहीं खुद अपना लहजा भूल गया ...
बहुत ही लाजवाब शेर है ... अक्सर ऐसा हो होता है जिंदगी में ...
तुम क्या रूठे लफ़्ज़ भी अब तो मुझसे रूठ गए शाहिद
सुनने वाले ये कहते हैं अच्छा कहना भूल गया
वाह.... बहुत खूब ग़ज़ल है शाहिद जी. बहुत दिनों के बाद याद आई आपको ब्लॉग की.
"कहने वाले ये कहते हैं, ब्लॉग का रस्ता भूल गया"
:) :)
बहुत सुन्दर ...
बहुत ही अच्छी गज़ल। ऐसे ही गज़लें प्रस्तुत करते रहिए।
बढ़िया लगी ग़ज़ल , बहुत वक्त बाद आपका लिखा पढ़ना अच्छा लगा।
साथी मुझको लेकर चलना फिर बचपन की गलियों में
शायद ऐसा कुछ मिल जाए जिसको लाना भूल गया
क्या बात है ,,बहुत ख़ूब !!
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