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Monday, October 12, 2009

दो बहर में एक ग़ज़ल

दोस्तों,
मैं शेर भले ही कह लेता हूँ, लेकिन ये तस्लीम करने में मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं कि मुझे शायरी के फन की ज़्यादा मालूमात नहीं है इसे कुदरत का इनाम कहा जाएगा, कि जिस बहर में कोई कलाम सुनता हूँ, वो मेरे ज़हन में उतर जाती है
कुछ अरसा पहले उर्दू कि एक मैगजीन में पहले इनाम के लिए चुना गया एक शेर पढने को मिला। शेर कुछ यूं है
किस कदर कहत--वफ़ा है मेरी दुनिया में नदीम,
जो ज़रा, हंसके मिले, उसको मसीहा समझूँ

ये शेर कई मर्तबा पढ़ापहले लगा कि कातिब से इसे लिखने में कोई चूक हो गयी हैक्योंकि पहली नज़र में दोनों मिसरे अलग अलग बहर में होने का इशारा कर रहे थेलेकिन एक मैयारी किताब में इस तरह की गलती होने की गुंजायश आम तौर पर नहीं होती
फिर ये क्या है? यही सोचते हुए काफी वक्त गुज़र गयाआखिरकार ज़हन में ही गया, कि शेर का पहला मिसरा दो बहर में गया हैदरअसल उर्दू शायरी में कुछ हरूफ ज़रूरत के मुताबिक पूरी या आधी आवाज़ ही देते हैंवाही इस ग़ज़ल के पहले मिसरे में हुआ है
आपकी आसानी के लिए इसकी दोनों बहरों के वज़न के दो मिसरे मिसाल के तौर पर यहाँ लिख रहा हूँ-
१- गम उठाने के लिए मैं तो जिए जाऊंगा
.................................मेरे हुज़ूर फिल्म )

२- तश्नगी प्यासों की वह हरगिज़ बुझा सकता नहीं
आइना, पानी तो रखता है, पिला सकता नहीं

................................................. (जनाब रियाज़ सागर )

बस, यहीं से ख्याल आया कि दो बहर में एक ग़ज़ल कहकर देखी जाएकोशिश शुरू हुई, और कामयाबी भी मिलीलेकिन यकीन मानिये, एक ग़ज़ल को दो बहरों पर तौलने की इस कोशिश ने ज़हन की चूलें हिला दीं
बहरहाल ग़ज़ल हाज़िर--खिदमत है-

क्या कहें हम पे हँसे थे जो, वो अब कैसे मिले
वो जो थे अहले-वफ़ा टूटे हुए बिखरे मिले
कोई मरहम ही लगाये, ये ज़रूरी तो नहीं
मैं उसे समझूँ मसीहा, जो ज़रा, हंसके मिले
लौटकर माजी की दुनिया में मैं खो जाता मगर
वो तो यादों के दिए थे, जो मुझे जलते मिले
बज्म गैरों की थी लेकिन, ये ताज्जुब ही रहा
ज़िक्र तेरा ही रहा है, या मेरे चरचे मिले
कहने को कहते हैं 'शाहिद' भी मगर सच भी सुनो
इल्म बहरों का, हुआ हमको, उर्दू से मिले
शाहिद मिर्जा 'शाहिद'

5 comments:

Asha Joglekar said...

वाह शाहिद साहब आप तो कमाल का लिखते हैं, और शायरी की तकनीकी जानकारी भी खूब रखते हैं ।
ये दोनो शेर बहुत पसंद आये ।
लौटकर माजी की दुनिया में मैं खो जाता मगर
वो तो यादों के दिए थे, जो मुझे जलते मिले।
बज्म गैरों की थी लेकिन, ये ताज्जुब ही रहा
ज़िक्र तेरा ही रहा है, या मेरे चरचे मिले।

श्रद्धा जैन said...

कोई मरहम ही लगाये, ये ज़रूरी तो नहीं
मैं उसे समझूँ मसीहा, जो ज़रा, हंसके मिले

waah kamaal ka sher hai

Randhir Singh Suman said...

nice

Pritishi said...

बज्म गैरों की थी लेकिन, ये ताज्जुब ही रहा
ज़िक्र तेरा ही रहा है, या मेरे चरचे मिले

कहने को कहते हैं 'शाहिद' भी मगर सच भी सुनो
इल्म बहरों का, हुआ हमको, न उर्दू से मिले

bahut khoob!

इस्मत ज़ैदी said...

shahid sahab,koshish mere khayal se kamyab hai ,mubarak ho