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Sunday, October 4, 2009

परेशां और भी होंगें ...


 
भुलाना चाहता हूँ मैं मगर सब याद आता है
तेरी यादों ने बख्शा है जो मन्सब याद आता है
 

सितम बे-महर रातों का मुझे जब याद आता है
इन्हीं
तारीकियों में था जो नख्शब याद आता है
 

हर इक इन्सान उलझा है यहाँ अपने मसाइल में
परेशां और भी होंगें किसे कब याद आता है
 

दलीलों के लिए तो सैकड़ों पहलू भी हैं लेकिन
जो सोचूं तो मुझे अच्छा बुरा सब याद आता है
 

वहां की सादगी में दर्स है रिश्तों की अजमत का
जिसे तुम गाँव कहते हो वो मकतब याद आता है
 

लिया है काम ऐसे भी सियासत ने अकायद से
उठाने हों अगर फितने तो मज़हब याद आता है
 

हैं बन्दे तो सभी लेकिन वो मोमिन हो गए शाहिद
जिन्हें अच्छे बुरे हर हाल में रब याद आता है
 

शाहिद मिर्जा शाहिद

2 comments:

daanish said...

हरेक इन्सान उलझा है यहाँ अपने मसाइल में
परेशां और भी होंगें किसे कब याद आता है

aisaa nayaab sher...
bahut arse ke baad is tarah ka
sachchaa sher sun`ne ko milaa hai
daad ke liye
filhaal
be-lafz hooN

इस्मत ज़ैदी said...

वहां की सादगी में दर्श है रिश्तों की अजमत का
जिसे तुम गाँव कहते हो वो मकतब याद आता है
लिया है काम ऐसे भी सियासत ने अकायद से
उठाने हों अगर फितने तो मज़हब याद आता है

sach hai rishton ki azmat aur ahmiyat
jitni aj bhi gaon men milti hai sharon men uska fuqdan hai ise maktab ka nam de kar azmat men ezafa kar diya hai ,mubarak ho shahid sahab
doosri taraf siyasat ke aqayed ka
sach bayan karta hua ye sher qabile dad hai