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Tuesday, October 27, 2009

कांच के बरतन

आज एक क़ता हाज़िर है
बिना किसी तमहीद के, मुलाहिज़ा फरमायें--

एक हथेली रेखाओं में कितनी उलझन रखती है.
और नजूमी ये कहता है ''जीवन दर्शन रखती है.


किस्मत ने रखा है सजाकर ताक़ पे ऐसे खुशियों को
जैसे मां बच्चों से बचाकर कांच के बरतन रखती है

शाहिद मिर्ज़ा 'शाहिद'

4 comments:

padmja sharma said...

काँच के बर्तन संभाल के रखने पड़ते हैं .वक्त कितना लगता है , टूटने में ? खुशियाँ भी इतनी ही नाज़ुक होती हैं .

Asha Joglekar said...

सही कह रहे हैं खुशियों का जीवन कांच के बरतनों जितना ही होता है ।

इस्मत ज़ैदी said...
This comment has been removed by the author.
द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

किस्मत ने रखा है सजाकर ताक पे ऐसे खुशियों को
जैसे मां बच्चों से बचाकर कांच के बरतन रखती है

एक दम नया तरीक़ा
वाह-वाह
बधाई