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Wednesday, July 28, 2010

मंजिल कभी कभी

हज़रात...

एक पुरानी ग़ज़ल ख़िदमत में हाज़िर है
ये ग़ज़ल खुद मुझे बहुत पसंद है....
उम्मीद है आप भी पसंद फ़रमाएंगे

मुलाहिज़ा फ़रमाएं.....

















ये  दर्स  भी हुआ  हमें  हासिल  कभी कभी
आसान ख़ुद ही होती है मुश्किल कभी कभी

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी

राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी

इस खौफ से मैं बज्म में हंसने से डर गया
रोयेगा खिल्वतों में मेरा दिल कभी कभी

शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो कातिल कभी कभी

शाहिद मिर्जा शाहिद

49 comments:

आपका अख्तर खान अकेला said...

shaahid bhaayi bhut khub aek ummid men kshti ko dubne se bhaa li isi ko himmt khte he . akhtar khan akela kota rajsthan

shikha varshney said...

बहुत खूब लिखते हैं गज़ल आप यूँ तो
हमें पढ़ने को मिलता है मगर कभी कभी :)
माशाल्लाह बहुत खूबसूरत गज़ल है शहीद जी

Alpana Verma said...

'कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी'

वाह!बहुत खूब कहा है,उम्मीद की एक छोटी सी किरण भी मंजिल तक पहुँचा देती है,बस मंजिल को नज़र से ओझल नहीं होने देना चाहिए.
-बहुत अच्छी ग़ज़ल है.

चैन सिंह शेखावत said...

bahut khoob...shaandar...
aapki ghazlo ka besabri se intezaar rahta h..

इस्मत ज़ैदी said...

राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी

बहुत ख़ूब!
ग़ज़ल के तक़ाज़ों को पूरा करता हुआ बेहद ख़ूबसूरत शेर

इस खौफ से मैं बज्म में हंसने से डर गया
रोयेगा खिल्वतों में मेरा दिल कभी कभी

वाह!
कुछ अश’आर ऐसे होते हैं जिन्हें हम जितनी अच्छी तरह महसूस कर सकते हैं उतनी अच्छी तरह मुनासिब अल्फ़ाज़ में उस की तारीफ़ नहीं कर सकते
ये शेर कुछ ऐसा ही है
ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिये मुबारकबाद क़ुबूल करें

kshama said...

ये दर्स भी हुआ हमें हासिल कभी कभी
आसान ख़ुद ही होती है मुश्किल कभी कभी

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी

Wah! Maza aa gaya.....aapne poore ek maah ke baad ye post daali hai..gazab ke alfaaz hain!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी

बहुत सुन्दर ...

rashmi ravija said...

राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी

क्या बात है...बहुत ही उम्दा ग़ज़ल

रश्मि प्रभा... said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया......यह उम्मीद कभी बेअसर नहीं होती

Dr.R.Ramkumar said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी

राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी

शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो कातिल कभी कभी


शाहिद भाई ,
पुराने चांवल ही पककर लज़ीज़ होते हैं ।

अर्ज किया है..

क्या जानिये क्या याद में होता है करिश्मा
छूटी हुई मिल जाती है महफिल कभी कभी

अनामिका की सदायें ...... said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी


कहीं तो उम्मीद की किरण नज़र आई.

हमेशा की तरह सुंदर उम्दा गज़ल.

Pawan Kumar said...

शाहिद भाई
क्या खूब ग़ज़ल कही है....सच में मज़ा आ गया.
ये दर्स भी हुआ हमें हासिल कभी कभी
आसान ख़ुद ही होती है मुश्किल कभी कभी
दर्स लफ्ज़ अरसे बाद पढने को मिला...इसका इस्तेमाल बखूबी किया है....सुभानाल्लाह !

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी
वाह....इस शेर पर दाद दिए बिना कैसे रहा जा सकता है....!

राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी
उस्तादों की शायरी की झलक है इस शेर में......!

वन्दना अवस्थी दुबे said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी
बहुत सुन्दर शेर.
राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी
क्या कहूं? इतने सुन्दर अश’आर कि शब्द खोज रही हूं, लेकिन मिल ही नहीं रहे....वैसे भी सुन्दर शेर पर मैं केवल "वाह" कह पाती हूं, चाह कर भी तमाम शब्द जुटा नहीं पाती.... इतनी सुन्दर गज़ल के लिये बधाई.

ज्योति सिंह said...

शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो कातिल कभी कभी
राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी
vandana ji ki baton se main bhi sahamat ,is khoobsurat gazal pe waah waah ke siva aur kahoon kya ?wakai kamaal ki hai har baat .

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बेहतरीन गजल .....................

shama said...

शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो कातिल कभी कभी
Kya gazab dhaya hai is pooree gazal ne...sach alfaaz nahee mil rahe ki kuchh likhun!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

मन को छू गयी।

Deepak Shukla said...

Shahid bhai..

Namaskar!

Es baar bahut din baad aaye..

"SHAHID" ko tarasti rahin, aankhen meri kabse..
Tum bin sunaye kaun hamen,
Gazal kabhi kabhi..

Behtareen gazal..

Deepak..

तिलक राज कपूर said...

हर शेर मुकम्‍मल एहसास जी रहा है।

कोई ग़ज़ल कहे जो मुकम्‍मल तो देखिये
आती है दाद देने में मुश्किल कभी कभी।

नीरज गोस्वामी said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी

शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो कातिल कभी कभी

शाहिद भाई आपकी मन पसंद ग़ज़ल अब आपकी ही मन पसंद नहीं रही हमारी भी हो गयी है...बेहतरीन अशआरों से सजी ये ग़ज़ल भला किसी मन पसंद नहीं होगी...दिली दाद कबूल करें...

नीरज

हास्यफुहार said...

लजवाब!

रचना दीक्षित said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी

इस खौफ से मैं बज्म में हंसने से डर गया
रोयेगा खिल्वतों में मेरा दिल कभी कभी


शाहिद भई कई बार कुछ कहने से बेहतर लगता है की उसको सिर्फ महसूस किया जाए और उम्मीद तो दामन कभी छोडती नहीं. सो मैं महसूस कर रही हूँ

अनामिका की सदायें ...... said...

आप की रचना 30 जुलाई, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com

आभार

अनामिका

Shayar Ashok : Assistant manager (Central Bank) said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी

yun to her sher laajwaab hai,
per ye mujhe bahut pasand aaya...

सुनील गज्जाणी said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी
आदाब !
मेरी पसंद का शेर आप कि नज़र किया है .
हर शेर अच्छा है , एक मुद्दत के बाद आप का कलाम मिला , शुक्रिया

Asha Joglekar said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी
शाहिद भाई आप तो कमाल के गज़लकार हैं आपकी तारीफ में और क्या कहें एक एक शेर नायाब ।

शारदा अरोरा said...

सुन्दर , उम्दा ग़ज़ल , बधाई

Urmi said...

बहुत खूबसूरती से आपने हर एक शब्द लिखा है! आपकी लेखनी को सलाम! लाजवाब ग़ज़ल ! इस उम्दा पोस्ट के लिए बधाई!

chandrabhan bhardwaj said...

Shahid bhai
is ghazal par sabhi ne itni tippadiyan likh di hain ki alag se kahane ko kuchh raha hi nahin. fir bhi is achhi aur mukammal ghazal ke liye badhai.
Chandrabhan Bhardwaj

Rohit Singh said...

राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी
कई बार छूट गई मंजिले आवाज देती हैं.....

पर आपकी कब्र पर कातिल आ तो जाता है..अपनी पर कब्र को नींव समझ कर वो उस पर मकान बना बैठा है.....


क्या बात है आप मेरे ब्लॉग का रास्ता भूल गए हैं क्या...

फ़िरदौस ख़ान said...

राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी


बहुत ख़ूब...
हमेशा की तरह ही शानदार ग़ज़ल...

Pritishi said...

शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो कातिल कभी कभी

bahut hi badhiya Sher!

manu said...

शानदार ग़ज़ल मिर्ज़ा साहिब..

राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी

बहुत प्यारा शे'र है...अपने दिल के करीब है..


और...

शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो कातिल कभी कभी


और वैसा ही मक्ता भी है...
एकदम अपने को ही छूता हुआ सा

Ravi Rajbhar said...

Wah-2 har sher apne aap me adbhut
kis-2 ki tafif ki jaye...samjh me nahi ata par itna kahunga ....bhut khoob.
www.ravirajbhar.blogspot.com

Urmi said...

मित्रता दिवस की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ!

हरकीरत ' हीर' said...

शाहिद जी ,
हर बार की तरह .....नहीं उससे भी कहीं बेहतर .....हर इक शे'र ......

और ये दो शे'र तो लिए जा रही हूँ ......

इस खौफ से मैं बज्म में हंसने से डर गया
रोयेगा खिल्वतों में मेरा दिल कभी कभी

ओये होए ......!!
ये तन्हाई का आलम और उस पर आप का गम ......??

शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो कातिल कभी कभी

सुभानाल्लाह ......!!
कोई रकीब रहा होगा .....कमबख्त ....!!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

जब किसी गज़ल के सभी अशआर लाज़वाब होते हैं तभी उस गज़ल को उम्दा गज़ल कहते हैं. यह बात तब याद आई जब मैं देर तक एक बेहतरीन अशआर ढूंढता रहा और नहीं ढूंढ सका.
...उम्दा गज़ल.
...बधाई.

Pushpendra Singh "Pushp" said...

shahid sahb
har sher me dam hai
umda gajal har bar ki tarah
badhaiiiiii

सर्वत एम० said...

आपने तो मुश्किल तरीन जमीनों, काफियों, रदीफ़ों को उठा लेने की कसम खा रखी है. हम जैसे तो पोस्ट पढ़ने के बाद सकते में आ जाते हैं. बजाए तारीफ, हसद हावी हो जाता है. अहमद नदीम कासिमी ने कहा था-- "अपनी कोताही-ए-फन याद आई", बस यही मिसरा जहन के सन्नाटों में गूंजता रह जाता है.
अच्छे कलाम की तारीफ़ भी शायद एक फ़न है और शायद इन दिनों फ़न मुझसे रूठा हुआ है.

CS Devendra K Sharma "Man without Brain" said...

आता है अश्कबार वो कातिल कभी कभी

waah waah ke saath..aah!! bhi nikli......bahut khoob!

श्रद्धा जैन said...

राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी

bahut apna sa lagta hai ye sher

aapko padhna bahut sukhad raha

mukti said...

बड़े दिनों से आपकी ये गज़ल बुकमार्क करके रखी थी, आज आपकी टिप्पणी पढ़ी अपनी पोस्ट पर तो ध्यान आया. मैं यहाँ बेचैन जी की बात से सहमत हूँ. यह गज़ल पूरी ही बहुत उम्दा है. पर फिर भी एक शेर जो मुझे सबसे अधिक पसंद आया--
शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो कातिल कभी कभी

Urmi said...

आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया! आपके नए पोस्ट का इंतज़ार है!

Dimple Maheshwari said...

आपकी टिपण्णी के लिए आपका आभार ...अच्छी कविता हैं...बहुत अच्छी .

شہروز said...

इस खौफ से मैं बज्म में हंसने से डर गया
रोयेगा खिल्वतों में मेरा दिल कभी कभी

kya baat hai shahid sahab !!

निर्मला कपिला said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी

राह-ए-जनून-ऐ-शौक में पीछे जो रह गई
मुझको पुकारती है वो मंजिल कभी कभी


शाहिद ये राज क्या है कि मेरे मजार पर
आता है अश्कबार वो कातिल कभी कभी
वाह किसे छोडूँ किसे कोट करूँ हर एक शेर लाजवाब है। बधाई ।

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

शाहिद जी, आज का दिन बहुत ख़ास है. ये अब बताने कि जरुरत नहीं, तरही में देख रहा हूँ.
मन बाग़ बाग़ हुआ, और इस ग़ज़ल के क्या कहने.
(इन दिनों ब्लॉग पर नियमित नहीं हूँ, फिर भी मौका निकालकर आता रहता हूँ, आता रहूंगा)

दिगम्बर नासवा said...

कश्ती को इक उमीद ने आकर बचा लिया
आता रहा नज़र मुझे साहिल कभी कभी ..


बहुतर खूब शाहिद साहब .... खूबसूरत शेरों का गुलिस्ताँ है ये ग़ज़ल ..... जीने की उम्मीद मिलती रहे तो क्या बात है फिर ....

'साहिल' said...

बहुत उम्दा ग़ज़ल है.......