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Thursday, October 28, 2010

क्यों बन गई दीवार सी



साहेबान आदाब.
सुबीर संवाद सेवा
पर तरही मुशायरा शुरू हो गया है
जिसमें नाचीज़ की इस ग़ज़ल से ही आग़ाज़ किया गया है...
इस ग़ज़ल में सभी मतले हैं...
उम्मीद है आपको पसंद आएगी.
मुलाहिज़ा फ़रमाएं
   ग़ज़ल
बदला है क्या, कुछ भी नहीं, तुम भी वही, हम भी वही
फिर दरमियां क्यों फ़ासले, क्यों बन गई दीवार सी

रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी

ठहरा है कब वक़्त एक सा, रुत हो कोई बदली सभी
अब धूप है, अब छांव है, अब तीरगी, अब रोशनी

मायूसियों की आंधियां, थक जाएंगी, थम जाएंगी
बुझने नहीं देना है ये उम्मीद का दीपक कभी

महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैली न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई

मज़िल है क्या, रस्ता है क्या, सीखा है जो मुझसे सभी
वो शख़्स ही करने लगा आकर मेरी अब रहबरी

समझा वही शाहिद मेरे अहसास भी, जज़्बात भी
थोड़ा बहुत पानी यहां आंखों में है जिस शख़्स की

शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

44 comments:

Udan Tashtari said...

वहाँ भी आज ही पढ़ी और वाह निकल पड़ा बेसाख्ता!!

बहुत खूब!

इस्मत ज़ैदी said...

बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल !

रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी

वाह!

मायूसियों की आंधियां, थक जाएंगी, थम जाएंगी
बुझने नहीं देना है ये उम्मीद का दीपक कभी

बिल्कुल सही !कोशिश यही होनी चाहिये

महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैला न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई

बेहतरीन... और मेरे लिहाज़ से हासिले ग़ज़ल शेर

समझा वही शाहिद मेरे अहसास भी, जज़्बात भी
थोड़ा बहुत पानी यहां आंखों में है जिस शख़्स की

बहुत ख़ूब!
नया प्रयोग बहुत अच्छा रहा, मुबारक हो

रानीविशाल said...

मुशायरे कि शुरुआत आपकी गज़ल से की गई बहुत बहुत मुबरकबाद !
बहुत सुन्दर प्रयोग रहा ....गज़ल मे नयपन बहुत है. हर एक शेर बहुत खुबसुरती से घडा है आपने
रिश्तों की डोर और मायूसियों की आंधियां बेहद पसन्द आए..
महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैला न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई
वाह ! कितनी सुन्दर और सही बात ....आभार
और आमीर सहाब को भी बहुत बहुत शुभकामनाए :)

manu said...

कमाल लिखा है साहब...

रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी ....लाजवाब शे'र...

और..

महफूज़ रख..बेदाग़ रख...सच में...हासिले-ग़ज़ल शे'र ही कहा जाएगा...
कितनी आसानी से कितना कुछ कह गए इसमें आप...

एक और है जो...

मज़िल है क्या, रस्ता है क्या, सीखा है जो मुझसे सभी
वो शख़्स ही करने लगा आकर मेरी अब रहबरी...........
जो भीतर तक हिला रहा है...
वो शख्स ही करने लगा आकर मेरी अब रहबरी...क्या बात है जनाब...कुर्बान...

manu said...

एक रहम हम बालकों पर भी.....

हम जैसे ..जिनकी ग़ज़ले अक्सर सिर्फ एक मतले की मोहताज़ रहती हैं.....यहाँ मतले ही मतले देखकर कैसे जल-फूंके जा रहे हैं ..कह नहीं सकते....जैसे कोई भूखा किसी फाइव स्टार होटल में जा निकले..

:)
:)

manu said...

एक रहम हम बालकों पर भी.....

हम जैसे ..जिनकी ग़ज़ले अक्सर सिर्फ एक मतले की मोहताज़ रहती हैं.....यहाँ मतले ही मतले देखकर कैसे जल-फूंके जा रहे हैं ..कह नहीं सकते....जैसे कोई भूखा किसी फाइव स्टार होटल में जा निकले..

:)
:)

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बेहद पाक साफ़ भाव, नये अंदाज़ में कही बातें पुरअसर रहीं
और , एक एक शेर को ज़िंदा कर गयीं
ये एक बेहतरीन शायर के बस की ही बात है ..मुबारक हो
ऐसे ही लिखते रहें
आदाब ,
- लावण्या

निर्मला कपिला said...

शाहिद जी आपकी गज़लें पढना तो मेरे लिये सौभाग्य की बात है कल जब तरही पढ रही थी तो नज़र साईड बार मे चली गयी गलती से पाखी जी की गज़ल ही सामने आ पाई। फिर मुझे लगा जैसे पोस्ट तो बहुत बडी थी कहीं कुछ रह गया है और देख्ग कर हैरान हुयी कि आपकी गज़ल जिसके लिये हर वक्त उत्सुक रहती, और कुश जी की गज़ल भी वहाँ थी। इस गज़ल का हर एक शेर दिल को छूते हुये निकलता है आपकी गज़ल को तो कई बार पढती हूँ क्यों कि कहन तो उमदा होता ही है उर्दू शब्द भी आम समझ आने वाले होते हैं। और उर्दू शब्दों के बिना गज़ल का सौंद्र्य मुझे लगता है अधूरा सा रहता है। इस नायाब गज़ल के लिये बधाई और शुभकामनायें।कोट करने को कोई भी शेर चाहे लिख दूँ मगर मुझे पूरी गज़ल बेहद पसंद है।

नीरज गोस्वामी said...

शहीद भाई मतलों से भरी इस नायाब ग़ज़ल के लिए वो ही कह रहा हूँ जो पंकज जी के ब्लॉग पर कह आया था..." कहाँ हो इस ग़ज़ल को पढ़ कर आपको गले लगाने को दिल कर रहा है..."
अब क्या तारीफ़ करूँ इस ग़ज़ल की...अलफ़ाज़ ढूँढने से भी नहीं मिल रहे...दिली दाद कबूल करें...

नीरज

हरकीरत ' हीर' said...

सुबीर संवाद ने बहुत सुंदर ग़ज़ल से आगाज़ किया है ...
वैसे भी शाहिद जी की ग़ज़ल हो औए वाह न निकले हो नहीं सकता ....
हर बार की तरह हर शे'र उम्दा है किसकी तारीफ करूँ किसकी न करूँ ....

बदला है क्या, कुछ भी नहीं, तुम भी वही, हम भी वही
फिर दरमियां क्यों फ़ासले, क्यों बन गई दीवार सी

सच्च कहूँ तो इस शेर ने उदास कर दिया ...
इन दूरियों की याद दिला कर ...

रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी

सुभानाल्लाह .....!!
रहता भी है तो अजनबी बन ....वाह .....!!

ठहरा है कब वक़्त एक सा, रुत हो कोई बदली सभी
अब धूप है, अब छांव है, अब तीरगी, अब रोशनी

हाँ शायद ....पर अपने साथ कुछ रौशनियाँ भी ले जायेगा ....

मायूसियों की आंधियां, थक जाएंगी, थम जाएंगी
बुझने नहीं देना है ये उम्मीद का दीपक कभी

वाह बहुत खूब .....
दिवाली का ये तोहफा हम सब के लिए आपकी तरफ से .....
शुक्रिया ......!!

महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैला न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई

बहुत बड़ी बात कह दी इन दो पंक्तियों में ....
गाँठ बाँध लेने वाली बात .....

समझा वही शाहिद मेरे अहसास भी, जज़्बात भी
थोड़ा बहुत पानी यहां आंखों में है जिस शख़्स की
क्या बात कही ....
शाहिद जी थोड़ा बहुतक्या यहाँ तो बाल्टी भर गई ...हा...हा...हा....!!

बधाई आपको भी और सुबीर संवाद सेवा को भी .....!!

हरकीरत ' हीर' said...
This comment has been removed by the author.
हरकीरत ' हीर' said...

वैसे भी शाहिद जी की ग़ज़ल हो औए वाह न निकले हो नहीं सकता ....
हर बार की तरह हर शे'र उम्दा है किसकी तारीफ करूँ किसकी न करूँ ....

बदला है क्या, कुछ भी नहीं, तुम भी वही, हम भी वही
फिर दरमियां क्यों फ़ासले, क्यों बन गई दीवार सी

सच्च कहूँ तो इस शेर ने उदास कर दिया ...
इन दूरियों की याद दिला कर ...

रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी

सुभानाल्लाह .....!!
रहता भी है तो अजनबी बन ....वाह .....!!

ठहरा है कब वक़्त एक सा, रुत हो कोई बदली सभी
अब धूप है, अब छांव है, अब तीरगी, अब रोशनी

हाँ शायद ....पर अपने साथ कुछ रौशनियाँ भी ले जायेगा ....

मायूसियों की आंधियां, थक जाएंगी, थम जाएंगी
बुझने नहीं देना है ये उम्मीद का दीपक कभी

वाह बहुत खूब .....
दिवाली का ये तोहफा हम सब के लिए आपकी तरफ से .....
शुक्रिया ......!!

शारदा अरोरा said...

खूबसूरत , किस किस शेर की तारीफ़ करें ...महीने में एक दिन अचानक से खजाने से एक ग़ज़ल प्रगट होती है , वाह वाह

Alpana Verma said...

'रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी'
******वाह! क्या खूब कहा है! वाह!
महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैला न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई
****यह भी कमाल का शेर है! वाह!
बधाई इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए .

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

ठहरा है कब वक़्त एक सा, रुत हो कोई बदली सभी
अब धूप है, अब छांव है, अब तीरगी, अब रोशनी

मायूसियों की आंधियां, थक जाएंगी, थम जाएंगी
बुझने नहीं देना है ये उम्मीद का दीपक कभी..

बहुत खूबसूरत गज़ल ..हर शेर पर दाद कबूल करें

दिगम्बर नासवा said...

मायूसियों की आंधियां, थक जाएंगी, थम जाएंगी
बुझने नहीं देना है ये उम्मीद का दीपक कभी ..

शाहिद साहब ... आज दुबारा इस ग़ज़ल को पढने के बाद दुगना मज़ा आ गया .... हस शेर मुकम्मल ... वाह वाह निकलता है हर बार .... आपकी अदायगी बहुत ही बेमिसाल है ....

shikha varshney said...

महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैला न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई
जबर्दस्त्त आपको पढ़ना हमेशा एक ट्रीट मिलने जैसा होता है.

Ankit said...

नमस्कार शहीद जी,
तरही की शुरुआत ही जिस ग़ज़ल से हुई हो, वो निसंदेह ही कुछ ख़ास होगी.
गुरु जी के ब्लॉग पे कल आपकी ग़ज़ल पढ़ी और मन झूम उठा.

हर शेर या कहूं हर मतला ज़ोरदार, शानदार और लाजवाब है. कोई किसी से कमतर नहीं है मगर इस शेर ने क़यामत ढा दी है,

"महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैला न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई"

वाह-वा, दिली दाद कुबुलें.

Padm Singh said...

एक एक शे'र नायाब ! तारीफ़ करना सूरज को दिया दिखाना ही होगा ! बधाई

ज्योति सिंह said...

मज़िल है क्या, रस्ता है क्या, सीखा है जो मुझसे सभी
वो शख़्स ही करने लगा आकर मेरी अब रहबरी

समझा वही शाहिद मेरे अहसास भी, जज़्बात भी
थोड़ा बहुत पानी यहां आंखों में है जिस शख़्स की
harkeerat ji ne sahi farmaya hum bhi unse sahmat hai ,aap likhte hi kamaal ka hai ,hamari bhi dad kabool kare .aur sabse aakhri sher dil ko bha gayi .bahut khoob .

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

समझा वही शाहिद मेरे अहसास भी, जज़्बात भी
थोड़ा बहुत पानी यहां आंखों में है जिस शख़्स की...


बेहतरीन !
-----------
क्यूँ झगडा होता है ?

उम्मतें said...

एक से बढकर एक ...बहुत खूब !

rashmi ravija said...

इस ग़ज़ल से आगाज़ करके चार चाँद लग गए मुशायरे को.

रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी

बहुत ही गहरी बात कह दी है....
सारे ही शेर बेहतरीन हैं...

रचना दीक्षित said...

रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी

वाह.....वाह... हर शेर मुकम्मल. बहुत खूबसूरत गज़ल

प्रवीण said...

.
.
.
एक एक शेर बेहतरीन... दिल को छूता हुआ सा...

आभार आपका!


...

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत ही सुन्दर गज़ल........मुशायरे के आग़ाज के लिये बधाई

वन्दना अवस्थी दुबे said...

महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैला न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई
बहुत सुन्दर शेर है शाहिद जी. पूरी गज़ल सुन्दर है, हमेशा की तरह.

सुनील गज्जाणी said...

रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी
sunder sher ke saath aap ko aadab !
sabhi sher umda hai hai magar meri pasand ko sher aap ki nazar .
shkariya
adab

राजेश उत्‍साही said...

शाहिद जी आपकी गज़ल पढ़कर अच्‍छा लगा। साथ लगे चित्र का परिचय भी अगर दे देते तो बेहतर होता।

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैली न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई

बेहतरीन ग़ज़ल है ! हरेक शेर चमकता हुआ ... पर उपरोक्त शेर बेहद पसंद आया !

daanish said...

दिए गए तरही मिसरे पर
फ़नकाराना अंदाज़ से कही गयी शानदार ग़ज़ल
हर शेर अपनी बात ख़ुद साबित कर रहा है ...
ख़ास तौर पर
मज़िल है क्या,रस्ता है क्या,सीखाहै जोमुझसे सभी
वो शख़्स ही करने लगा आकर मेरी अब रहबरी
जैसे शेर तो रहबरी करते ही हैं....
और
रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहताभी है,बनकर मगर इक अजनबी
सच्चे मोती-सा चमकता-दमकता शेर ... वाह !

मुबारकबाद .

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

@ राजेश उत्साही जी, हर पोस्ट में कोई न कोई तस्वीर लगा देने की आदत बन गई है...बस
वैसे ये तस्वीर अजमेर शरीफ़ में स्थित ढाई दिन के झोपड़े की है...जो काफ़ी ऊंचाई से मेरे द्वारा ही ली गई है...
सवाल अगर बच्चे के बारे में है, तो यह हमारा लख़्ते-जिगर (सुपुत्र) है.
सभी टिप्पणीकारों का शुक्रिया, जिन्होने हौसला अफ़ज़ाई की है.

"अर्श" said...

आदाब ,
आप मेरे पसंदीदा शईरों में से हैं ब्लॉग पर , तो इसलिए फिर से आपकी ग़ज़ल की तारीफ किये बगैर नहीं रह पाया ... फिर से दाद कुबूल करें !


अर्श

Pawan Kumar said...

शाहिद भाई....
हम तो आपके पुराने फैन हैं.....
क्या लाजवाब लिखते हैं...
इस तरही का आगाज़ आपसे हुआ हो उसको तो परवान चढ़ाना ही है...
बहरहाल, पूरी ग़ज़ल बेहतरीन बन पड़ी है......मगर ये शेर खास पसंद आया
महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैली न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई
उम्दा शेर वाह वाह

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

शाहिद भाई, बहुत ही प्‍यारी गजल कही है। बधाई स्‍वीकारें।

---------
सुनामी: प्रलय का दूसरा नाम।
चमत्‍कार दिखाऍं, एक लाख का इनाम पाऍं।

रश्मि प्रभा... said...

रिश्तों की ये क्या डोर है, कैसी है ये जादूगरी
मुझमें कोई रहता भी है, बनकर मगर इक अजनबी
... jane kyun yah kerta hai akela
phir koi dor nazar nahi aati

लता 'हया' said...

आदाब शाहिद साहेब ,
दोहरी गुनहगार हूँ ; बहुत दिनों बाद आने के लिए और ब्लॉग के एक साल पूरे होने की बधाई भी देर से देने के लिए ....फिर भी मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमायें.....रही बात '' ज़ज्बात '' की ,
सौ बातों की एक बात सी
चाहे 'फैसला' या अम्न की बात .....वाह 1

RAJWANT RAJ said...

aapki safgoi bhut psand aai .

श्रद्धा जैन said...

महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैली न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई

waah kya khoob gazal hui hai har sher par waah nikli
har sher khoob

अनामिका की सदायें ...... said...

गज़ल का हर शेर रूह को छूता हुआ और शायद सब की जिंदगियों को अपनाता हुआ सा.

सुंदर उम्दा गज़ल.

Asha Joglekar said...

लेट लतीफ हूँ जरूर पर आपकी शायरी पढे बिना काम नही चलता । क्या गजल है एक एक शेर नायाब ।
मायूसियों की आंधियां, थक जाएंगी, थम जाएंगी
बुझने नहीं देना है ये उम्मीद का दीपक कभी

महफ़ूज़ रख, बेदाग़ रख, मैली न कर ताज़िन्दगी
मिलती नहीं इन्सान को किरदार की चादर नई
वाह ! वाह ! वाह !

Kunwar Kusumesh said...

आपकी सभी मत्ले वाली तरही ग़ज़ल के हर शेर का जवाब नहीं, चाहे सोंच के लिहाज़ से कोई देखे या अरूज़ के. आप मुझे और मेरे ब्लॉग को भी याद रखते है. आपके अन्दर एक अच्छा फ़नकार/शायर है तो यक़ीनन एक अच्छा इंसान भी है. मैं आपको प्रणाम करता हूँ.आपकी ग़ज़ल के क्रम में एक शेर/मत्ला मैं भी जोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ,देखिएगा.
हर साल की मानिंद आँखें फिर बिछाए हैं सभी,
आने को है फिर साले-नौ यानी की पहली जनवरी.

कुँवर कुसुमेश
ब्लॉग:kunwarkusumesh.blogspot.com

adbiichaupaal said...

आपके कतआत बहुत अच्छे लगे. परतवे अर्श और रौशनी और खुश्बू ने बहुत मुतास्सिर किया.

रूप said...

जनाब शाहिद साहेब आप मेरे ब्लाग पर आये अच्छा लगा . आपकी तरही ग़ज़ल पढ़ कर खुद को रोक ना पाया . दो शेर हुए हैं अंपनी राय से महरूम ना रखियेगा

"रिश्तों की ये जो डोर है , मौला तेरी जादूगरी
जोड़े तो दिल भी एक हों, टूटे तो कर दे अजनबी

अंधी अँधेरी राह पर, दीपक हूँ मैं नन्हा सही
हर एक पग पर है मेरे थोड़ी बहुत तो रौशनी"

"रूप" ०३.१२.२०१० समय १२.५३ रात्रि