नीरज गोस्वामी
इस नाम से ब्लॉग जगत में भला कौन नावाकिफ़ हैं
किताबों की दुनिया के नाम से 2008 में शुरू किये गये सिलसिले के तहत आपने शेर-शायरी की अब तक 90 किताबों की समीक्षा इतनी खूबसूरती से की है, कि पढ़ने वाले के दिल में किताब लेने की ख्वाहिश जाग जाती है. शायरी के प्रति ऐसी दीवानगी रखने वाले नीरज गोस्वामी की खुद की शायरी आज
डाली मोगरे की
के रूप में मज़रे-आम पर है. इस किताब के बारे में कई समीक्षा
अपनी शायरी के बारे में खुद नीरज जी कहते हैं-
कहीं बच्चों सी किलकारी कहीं यादों की फुलवारी
मेरी ग़ज़लों मे बस नीरज यही सामान होता है
सचमुच ऐसे लोगों से हम-आप रोज़ाना दो-चार होते हैं, जिनके बारे में नीरज जी कहते हैं-
जीतने के गुर सिखाते हैं वही इस दौर में
दूर तक जिनका नहीं रिश्ता रहा मैदान से
उनकी सलाह दोस्तों के लिये ही नहीं, दुश्मनों के लिये भी मश्वरा देते हुए कहते हैं-
मुझको मालूम है तुम दोस्त नहीं दुश्मन हो
अपने खंजर को भला मुझसे छिपाते क्यों हो
सियासत के लिये इससे खूब्सूरत अल्फ़ाज़ में भला और क्या नसीहत हो सक्ती है-
भूख से बिलबिलाते लोगों को
कायदे मत सिखाईये साहब
अपने ग़म छुपाने का ये अंदाज़ कितना प्यारा लगता है-
खार पर तितलियां नहीं आतीं
फूल सा मुस्कुराईये साहब
इंसान ज़िन्दगी भर चेहरों की परत के पीछे अपने को तलाश करने की कोशिश करता है,
ऐसे में नीरज जी बस दो मिसरों में फ़रमाते हैं-
दुश्मन को पहचानोगे
अपनों को पहचाना क्या
सेवा धर्म को लेकर कोई व्याख्यान करने के बजाय कहते हैं-
डाल दीं भूखे को जिसमें रोटियां
बस वही पूजा की थाली हो गई
दीवारें घरों में ही नहीं उठीं, आपसी संबंधों के हालात क्य हो चुके हैं,
बकौल शायर-
तुझमें बस तू बसा है मुझमें मैं
अब के रिश्तों में हम नहीं होता
सहनशीलता की सीमा के पार जाने वालों के लिये एक चेतावनी भी देते हैं-
शराफ़त का तकाज़ा है तभी खामोश है नीरज
फिसल जाये ज़बां इतना कभी लाचार मत करना
नीरज जी के इस हुनर को सलाम.
यहां कुछ बानगी पेश की गई हैं....
अपना एक शेर भी याद आ रहा है...
ये किताब शायद यही कह रही है-
देखने वालो कभी मुझमें उतरकर देखो
चंद कतरों से समंदर नहीं देखा जाता
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
इस नाम से ब्लॉग जगत में भला कौन नावाकिफ़ हैं
किताबों की दुनिया के नाम से 2008 में शुरू किये गये सिलसिले के तहत आपने शेर-शायरी की अब तक 90 किताबों की समीक्षा इतनी खूबसूरती से की है, कि पढ़ने वाले के दिल में किताब लेने की ख्वाहिश जाग जाती है. शायरी के प्रति ऐसी दीवानगी रखने वाले नीरज गोस्वामी की खुद की शायरी आज
डाली मोगरे की
के रूप में मज़रे-आम पर है. इस किताब के बारे में कई समीक्षा
वंदना गुप्ता सत्या व्यास मयंक अवस्थी श्रीमती पारुल सिंह जैसे अनुभवी पहले भी प्रकाशित कर चुके हैं, जिनमें बहुत कुछ कहा जा चुका है. दैनिक जनवाणी में भी इसे प्रमुखता से लिया गया है
मेरा बस इतना मानना है कि ज़िन्दगी के उन अछूते पहलुओं को शायरी की ज़बान में देखने के लिये डाली मोगरे की बहुत ज़रूरी है, जिन्हें हम ल्फ़्ज़ों का जामा नहीं पहना पाते, और जब नीरज जी की किताब में वो सब पढ़ते हैं, तो यक़ीन मानिये, अपने ही दिल की बात लगती है.अपनी शायरी के बारे में खुद नीरज जी कहते हैं-
कहीं बच्चों सी किलकारी कहीं यादों की फुलवारी
मेरी ग़ज़लों मे बस नीरज यही सामान होता है
सचमुच ऐसे लोगों से हम-आप रोज़ाना दो-चार होते हैं, जिनके बारे में नीरज जी कहते हैं-
जीतने के गुर सिखाते हैं वही इस दौर में
दूर तक जिनका नहीं रिश्ता रहा मैदान से
उनकी सलाह दोस्तों के लिये ही नहीं, दुश्मनों के लिये भी मश्वरा देते हुए कहते हैं-
मुझको मालूम है तुम दोस्त नहीं दुश्मन हो
अपने खंजर को भला मुझसे छिपाते क्यों हो
सियासत के लिये इससे खूब्सूरत अल्फ़ाज़ में भला और क्या नसीहत हो सक्ती है-
भूख से बिलबिलाते लोगों को
कायदे मत सिखाईये साहब
अपने ग़म छुपाने का ये अंदाज़ कितना प्यारा लगता है-
खार पर तितलियां नहीं आतीं
फूल सा मुस्कुराईये साहब
इंसान ज़िन्दगी भर चेहरों की परत के पीछे अपने को तलाश करने की कोशिश करता है,
ऐसे में नीरज जी बस दो मिसरों में फ़रमाते हैं-
दुश्मन को पहचानोगे
अपनों को पहचाना क्या
सेवा धर्म को लेकर कोई व्याख्यान करने के बजाय कहते हैं-
डाल दीं भूखे को जिसमें रोटियां
बस वही पूजा की थाली हो गई
दीवारें घरों में ही नहीं उठीं, आपसी संबंधों के हालात क्य हो चुके हैं,
बकौल शायर-
तुझमें बस तू बसा है मुझमें मैं
अब के रिश्तों में हम नहीं होता
सहनशीलता की सीमा के पार जाने वालों के लिये एक चेतावनी भी देते हैं-
शराफ़त का तकाज़ा है तभी खामोश है नीरज
फिसल जाये ज़बां इतना कभी लाचार मत करना
नीरज जी के इस हुनर को सलाम.
यहां कुछ बानगी पेश की गई हैं....
अपना एक शेर भी याद आ रहा है...
ये किताब शायद यही कह रही है-
देखने वालो कभी मुझमें उतरकर देखो
चंद कतरों से समंदर नहीं देखा जाता
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
7 comments:
जीतने के गुर सिखाते हैं वही इस दौर में
दूर तक जिनका नहीं रिश्ता रहा मैदान से
एक से बढ़कर एक शेर हैं आदरणीय
neeraj ji kee shayri bahut khoob hai aur aapne unkee pustak kee sameeksha babakhoobi prastut ki hai .aap dono bandhuon ko badhai
मैंने भी पढ़ी किताब वाक़ई मोगरे की ख़ुश्बू से महकती हुई ख़ूबसूरत ग़ज़लों को पढ़ने का लुत्फ़ आया ,,सादा ज़ुबान में बहुत प्यारी ग़ज़लें हैं
सुंदर समीक्षा !
शहिद जी , आपने भी बहुत सुन्दर शेर चुन कर लेख लिखा है ..'डाली मोगरे की'blog की तो कोई भी पोस्ट हम पढ़ना नहीं भूलते ...
बहुत ही सुंदर समीक्षा ...!बधाई
RECENT POST - पुरानी होली.
बहुत ही सुंदर समीक्षा ...!बधाई
RECENT POST - पुरानी होली.
सुन्दर समीक्षा...
किताब का आवरण भी बहुत सुन्दर हैं.
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