Father's Day की मुबारकबाद
ये रचना पूरी पढ़ने की गुज़ारिश है।
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वो थोड़ा सख्त सा दिखता है जिसको बाप कहते हैं।
इसी पत्थर के सीने से कई झरने भी बहते हैं
।।
हो रुत कोई भी इस गुलशन में पतझड़ ही नहीं आता
थका हारा हो जितना भी उदासी घर नहीं लाता
मुक़द्दर से यूं दो-दो हाथ उसके होते रहते हैं
इसी पत्थर के सीने से.....
मुसीबत हार जाती है उस इक इंसान के आगे
चटानों सा अडिग रहता है हर तूफान के आगे
परेशानी के सारे चक्रव्यूह टूटे से रहते हैं
इसी पत्थर के सीने से....
वो घर की हर ज़रूरत को किसी भी दाम पर लाया
कभी उसने नहीं सोचा न हमको ये ख़्याल आया
ख़ुद उसके अपने अरमानों के कितने महल ढहते हैं
इसी पत्थर के सीने से.....
हर इक मझधार से कश्ती किनारे तक वही लाया
हमें तो आज तक शाहिद समझ में ये नहीं आया
वो सहता है थपेड़े या थपेड़े उसको सहते हैं।
इसी पत्थर के सीने से...कई झरने भी बहते हैं
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शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
ये रचना पूरी पढ़ने की गुज़ारिश है।
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वो थोड़ा सख्त सा दिखता है जिसको बाप कहते हैं।
इसी पत्थर के सीने से कई झरने भी बहते हैं
।।
हो रुत कोई भी इस गुलशन में पतझड़ ही नहीं आता
थका हारा हो जितना भी उदासी घर नहीं लाता
मुक़द्दर से यूं दो-दो हाथ उसके होते रहते हैं
इसी पत्थर के सीने से.....
मुसीबत हार जाती है उस इक इंसान के आगे
चटानों सा अडिग रहता है हर तूफान के आगे
परेशानी के सारे चक्रव्यूह टूटे से रहते हैं
इसी पत्थर के सीने से....
वो घर की हर ज़रूरत को किसी भी दाम पर लाया
कभी उसने नहीं सोचा न हमको ये ख़्याल आया
ख़ुद उसके अपने अरमानों के कितने महल ढहते हैं
इसी पत्थर के सीने से.....
हर इक मझधार से कश्ती किनारे तक वही लाया
हमें तो आज तक शाहिद समझ में ये नहीं आया
वो सहता है थपेड़े या थपेड़े उसको सहते हैं।
इसी पत्थर के सीने से...कई झरने भी बहते हैं
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शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
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