डायरी से इक ग़ज़ल
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ख़ुशी का कोई बहाना वो ढूंढता होगा।
ग़मों से मुझको भी खुद को उबारना होगा।।
नमी में आंखों की वो रोज़ भीगता होगा।
मुझे यक़ीन है पत्थर नहीं हुआ होगा।।
सिमट के रहने का फ़न सीखने से पहले तक
मेरी ही तरह वो कुछ-कुछ बिखर गया होगा।।
ऐ वक़्त, माज़ी के कुछ तो निशान रहने दे
कि ख़ुद में मुझको अभी तक वो देखता होगा।।
ये किरचें रोज़ यही इक सवाल करती हैं
कि मेरे दिल को अभी कितना टूटना होगा।।
फ़रेब ही सही फिर भी सुकून देता है
कि दूर जाके मुझे वो पुकारता होगा।।
यूं बेसबब कोई कब रास्ता बदलता है
यूंही तो तर्के-तआल्लुक नहीं किया होगा।।
ज़रा ये सोच कभी तू ऐ बुत खुदा के लिए
कोई उम्मीद से तुझको तराशता होगा।।
मिलेगा दर्द तो निखरेगी शायरी ’शाहिद’
ये मुझको तोड़ने वाला भी जानता होगा।।
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
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